बिलासपुर। हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला से आए निर्वासित सांसद तेनजिन चुनजी और नगाबा गैंगरी ने कहा कि पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना द्वारा 1949 में आक्रमण करने के बाद से तिब्बती लोगों के मूलभूत मानवाधिकारों का व्यवस्थित रूप से उल्लंघन हो रहा है तिब्बती अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक और राष्ट्रीय पहचान पर उपस्थित खतरे से आहत हैं। तिब्बत में स्थिति पिछले सात दशकों में बद से बदतर होती गई है। यह अब अपने सांस्कृतिक संहार और पहचान के पूर्ण विनाश के खतरे का सामना कर रहा है।
दोनों सांसद बिलासपुर प्रेस क्लब में पत्रकारों से चर्चा कर रहे थे। उनके साथ भारत तिब्बत सहयोग मंच के प्रदेश अध्यक्ष कैलाश गुप्ता और प्रदेश महामंत्री शुभम शेंडे भी मौजूद थे।
सांसदों ने कहा कि 1959 में चीन के अवैध कब्जे से पहले के करीब दो हजार से अधिक वर्षों तक तिब्बत भौगोलिक दृष्टि से दो एशियाई दिग्गजों- भारत और चीन के बीच बफर राज्य के रूप में अस्तित्व में रहा। तिब्बत और भारत के बीच मैत्रीपूर्ण सह-अस्तित्व और सांस्कृतिक आदान-प्रदान का हजारों सालों का इतिहास रहा है। दोनों समृद्ध, प्राचीन और समकालीन सभ्यताओं वाले पड़ोसी रहे हैं। इस तरह से अतीत में भारत और चीन के बीच कभी भी किसी भी प्रकार की सीमा नहीं मिलती थी। हालांकि चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जे के बाद से भारत और चीन के बीच सीमा अस्तित्व में न केवल आ गई है, बल्कि वह विवाद का विषय भी बनी हुई है। इन सीमाओं के पीछे हमारे तिब्बती भाई-बहन हैं। इन पर चीन का आधिपत्य कायम है और चीनी दमनकारी नीतियों के तहत तिब्बती लोगों का उत्पीड़न जारी है।
उन्होंने कहा कि यह लगातार तीसरा वर्ष है, जब फ्रीडम हाउस की विश्व स्वतंत्रता सूचकांक रिपोर्ट-2023 में फिर से तिब्बत को दुनिया में सबसे कम स्वतंत्र देश के रूप में स्थान दिया गया है। पिछले साल, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार विशेषज्ञों ने तिब्बत में बड़े पैमाने पर स्थापित किए जा रहे औपनिवेशिक तरीके के अनिवार्य आवासीय स्कूलों को लेकर गंभीर चिंता व्यक्त की थी। साथ ही इसे अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार के मानकों के विपरीत और तिब्बती संस्कृति को बहुसंख्यक हान संस्कृति में विलय करने की साजिश के तौर पर देखा था। इसी तरह, किंडरगार्टन की उम्र तक के तिब्बतियों से जबरन सामूहिक डीएनए नमूना संग्रह अधिनायकवादी शासन द्वारा उनके सार्वजनिक और निजी जीवन के सभी पहलुओं में भय पैदा करने के लिए है। इस तरह के अभियान का मूल उद्देश्य उनके निजी जीवन पर नियंत्रण स्थापित कर उसकी निगरानी करना और कठोर शासन के तहत उनके निजी जीवन में जबरन घुसपैठ करना हो सकता है। तिब्बत पर चीन सरकार द्वारा वर्षों से थोपी गई कुनीतियों के विरोध में फरवरी 2009 से अब तक ज्ञात रूप से विभिन्न क्षेत्रों के 158 तिब्बतियों ने आत्मदाह कर लिया है। इनकी मांग थी कि दलाई लामा की तिब्बत वापसी हो और तिब्बती लोगों की स्वतंत्रता फिर बहाल हो।
सांसदों ने कहा कि तिब्बती लोगों ने चीनी कम्युनिस्ट सरकार के क्रूर दमन के बावजूद पिछले 74 वर्षों से शांतिपूर्ण प्रतिरोध को जारी रखा है। अहिंसा के प्रति हमारा लचीलापन और हमारी प्रतिबद्धता दुनिया में स्वतंत्रता और न्याय चाहने वाले अन्य लोगों के लिए प्रेरणा का काम करती रही है। ऐसे में तिब्बती नागरिक के तौर पर हमारी स्थिति और अधिकारों को मान्यता दी जाए और उनकी पुनः पुष्टि की जाए। इसके लिए तिब्बत-चीन के विवाद के शांतिपूर्ण समाधान के आह्वान का समर्थन किया जाए और उसे मजबूत किया जाए। उम्यूर, दक्षिणी मंगोलियाई और हांगकांगवासी भी चीनी कम्युनिस्ट शासन के हाथों दमन, सांस्कृतिक संहार, मानवाधिकारों का घोर उल्लंघन और अनुचित उत्पीड़न का सामना कर रहे हैं।
तिब्बत-चीन संघर्ष को हल करने के लिए केंद्रीय तिब्बती प्रशासन (सीटीए) ने अपनी मध्यम मार्ग नीति के आधार पर 2002 से लेकर 2010 के बीच नौ दौर की वार्ता में शिरकत की और इस दौरान विश्वास निर्माण उपायों की श्रृंखला शुरू करने के लिए हरसंभव प्रयास किया है। 2010 के बाद से पीआरसी के साथ कोई बातचीत नहीं हुई है और गेंद पूरी तरह से चीनी सरकार के पाले में है। फिर भी सीटीए मध्यम मार्ग नीति के माध्यम से तिब्बती और चीनी दोनों लोगों के सर्वोत्तम हित में तिब्बत-चीन संघर्ष को बातचीत के माध्यम से हल करने के लिए दृढ़ प्रतिबद्ध है और उसने अपने दरबाजे बातचीत के लिए खुला छोड़ रखा है। इसके अलावा, हम मानते हैं कि तिब्बत पर चीन के कब्जे को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मान्यता देना और तिब्बती लोगों को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित करने के लिए चीन सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराना अंतरराष्ट्रीय कानून और कानून के शासन को बनाए रखने के प्रयासों को कमजोर करता है। इसे बदलने के लिए चीन सक्रिय रूप से काम कर रहा है। इसी तरह तिब्बत मामले को लेकर चीन को खुश करते रहने से भी चीन को दूसरे क्षेत्रीय दावों को दबाने के लिए प्रोत्साहित करता है। कई सरकारें ऐसा कर भी रही है। चीन ज्यादातर झूठे या भ्रामक ऐतिहासिक आख्यानों का उपयोग करता है। वह तिब्बत पर अपने दावे को सही ठहराने के लिए उनका उपयोग करता है। तिब्बती सांसदों ने भारत से मांग की है कि ऐतिहासिक तौर पर स्वतंत्र और संप्रभुता संपन्न अतीत वाले तिब्बत को वर्तमान में अतिक्रमित राष्ट्र के रूप में मान्यता दें। चीन कई तरह के झूठे कथानक गढ़ता है। इन कथानकों में तिब्बतियों को अल्पसंख्यक बताना शामिल है। तिब्बत पर कब्जे को बीजिंग का आंतरिक मुद्दा बताना और तिब्बत को चीन का हिस्सा घोषित करना भी इसमें शामिल है। इस तरह के कथानकों से तिब्बत पर चीन के उपनिवेशीकरण और तिब्बतियों पर आधिपत्य को न्यायोचित ठहराने में सहायता मिलती है। इनमें तिब्बतियों के लिए अधिक सार्थक स्वतंत्रता के लिए बातचीत की गुंजाइश नहीं मिलती है।