बिलासपुर। ऐसे आदिवासी जिनके वनाधिकार पट्टे का आवेदन निरस्त कर दिया गया है, उन्हें देश के 16 राज्यों के जंगलों से बेदखल कर दिया जायेगा। केन्द्र सरकार द्वारा इस मामले में पैरवी करने के लिए मौजूद नहीं होना और राज्य सरकारों द्वारा मनमाने तरीके से आवेदनों को निरस्त करने की कार्रवाई का विभिन्न राजनैतिक दलों, सामाजिक संगठनों और आदिवासी संगठनों ने विरोध शुरू कर दिया है।

आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक कोमल हुपेन्डी और जयंत गायधने की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि  आदिवासियों और जंगल में रहने वाले समुदायों को जबरन जंगल से खदेड़ कर ज़मीन खाली कराने वाला सुप्रीम कोर्ट का हालिया आदेश वनवासी जनों के जीवन में अंधेरा लाने वाला है। देश के 16 राज्यों के 10 लाख से अधिक आदिवासियों को बेघर करने वाले आदेश के पूर्व सुनवाई में सरकार द्वारा अपना पक्ष तक नहीं रखना सरकार की वनवासी विरोधी मानसिकता को दिखाने वाला है। न्यायालय के निर्णय पर उनकी कोई टिप्पणी नहीं है किंतु केन्द्र सरकार का रवैया इस मामले में पूरी तरह संदिग्ध है, ऐसा प्रतीत होता है कि सरकार की ओर से जानबूझकर सही तथ्य कोर्ट के संज्ञान में नहीं लाए गये। यह निर्णय दूरगामी परिणाम सामने लायेगा जिससे देश का बड़ा हिस्सा बेघर होगा और वनवासी जनों का सामाजिक ताना-बाना पूरी तरह ध्वस्त हो जाएगा l इस आदेश के बाद 27 जुलाई के पहले जंगलों को खाली कराने की पहल की जानी है। इससे पूरे समाज में निराशा का वातावरण बना रहा है आज यह आदेश 16 राज्यों के संदर्भ में दिया गया है किंतु देश के सभी राज्य इसे मानने बाध्य होंगे। यही वजह है कि आज देश के हर हिस्से में इस आदेश को लेकर विरोध के स्वर उठ रहे हैं l 13 फरवरी को सुनवाई के दौरान अधिनियम का बचाव करने सरकार की ओर से कोई भी वकील पेश नहीं हुआ,  जिसके कारण कोर्ट में आदिवासियों का पक्ष ही नहीं रखा गया। इसके बाद अरुण मिश्र , नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने फैसला सुनाते हुए 10 लाख से ज़्यादा लोगों को जंगल खाली कराने का आदेश दे दिया है। उन्होंने इस पूरे मामले में केन्द्र सरकार की नीयत पर सवाल उठाते हुए कहा कि कहीं इसमें कोई साज़िश तो नहीं जिससे आसानी से जंगल खाली कराने का आसान रास्ता निकले और बड़े धन पतियों को जंगल की ज़मीन उपलब्ध कराई जा सके l

लोक स्वातंत्र्य संगठन छत्तीसगढ़ के अध्यक्ष डिग्री प्रसाद चौहान ने कहा कि  सर्वोच्च न्यायालय में वनाधिकार कानून के तहत आदिवासी तथा परंपरागत वनवासियों के जंगल अधिकार को मान्यता देने पर केंद्र -राज्य सरकारों के ढुल मुल रवैया रहा है । केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा सुप्रीम कोर्ट में समुचित पैरवी नही करने के कारण ही देश के एक करोड़ परिवार आज जबरन बेदखली के मुहाने पर हैं जो किसी भयंकर त्रासदी से कम नही होगी  ।गत13 फरवरी को ‘ वाइल्ड लाइफ फर्स्ट ‘ तथा अन्य के द्वारा दायर याचिकाओं , जिस पर आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के अधिकारों को चुनौती दी गयी है, की सुनवाई करते हुए न्यायालय ने राज्यों को निर्देशित किया है कि जिन सामुदायिक और वैयक्तिक दावों को निरस्त किया जा चुका है, उन्हें अतिक्रमण मानते हुए उस पर काबिज लोगों को ही बेदखल कर दिया जाए। छत्तीसगढ़ राज्य के निवर्तमान सरकार द्वारा न्यायालय के आदेश पर दिए गए शपथ पत्र के अनुसार पूरे प्रदेश में लगभग 20095 परिवारों के उजाड़े जाने की आशंका है, जो नागरिकों के मौलिक तथा संवैधानिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है । यह कानून कोई सावधि योजना नहीं है बल्कि समुदायों के जंगल पर निर्भरता और मालिकाना हक को मान्यता देने एक सतत् प्रक्रिया और निरंतर चलने वाली प्रभावी कानून है । यह कहना अनुचित नही होगा कि  इस मामले पर भी राज्य सत्ता का चरित्र हर बार की तरह जनपक्षधर नही रहा और जो कानून जनसंघर्षों के फलस्वरूप ऐतिहासिक अन्याय को नष्ट करने की संकल्पना के साथ आया था। आज वही कानून प्रशासनिक विफलता के कारण देश के मूल रहवासियों को ही अतिक्रमणकारी  और घुसपैठिया साबित करने पर तुला हुआ है । छत्तीसगढ़ के संदर्भ में यह कानून लालफीताशाही का शिकार हो गया । कानून की मूल भावना के ही विपरीत दावों की अंतिम तारीख सुना दी गई । ग्राम पंचायत स्तर पर ग्राम सभाओं और वन समितियों को निष्प्रभावी करते हुए उनकी सिफारिशों पर रोड़े अटका दिए गए । वन ग्रामों में वनपाल और राजस्व  ग्रामों में पटवारियों को उनके आकाओं के हुक्म स्पष्ट थे । इस कारण व्यापक पैमाने पर चौहद्दी और सीमांकन प्रभावित हुए । लाखों की संख्या में तो जानबूझकर दावे निरस्त कर दिए गए और दावाकर्ताओं को इसकी सूचना भी नहीं दी गई। इसके चलते बड़ी संख्या में  जनजातीय एवं वनवासी समुदाय अपील करने के उनके प्राकृतिक न्याय के अधिकार से भी वंचित हो गए । अनुभाग स्तर पर दावों के हजारों की संख्या में आवेदन स्वीकार नहीं किये गए । मनमाने तरीकों से दावों को अमान्य करते हुए निरस्त किया गया और उसे वृहद उद्योग तथा भीमकाय खनन परियोजनाओं हेतु व्यपवर्तित कर दिया गया । जब तक परियोजना क्षेत्र में वैयक्तिक और सामुदायिक दावों का सम्पूर्ण निपटान नहीं हो जाता तब तक परियोजनाओं को अनुमति नहीं देने के प्रावधान का भी इसमें  गंभीर उल्लंघन हुआ है । छत्तीसगढ़ में इस कानून के लागू होने के शुरुआत से ही राजकीय मशीनरी का रवैया नितांत जनविरोधी और शत्रुतापूर्ण रहा । रायगढ़ में जहां खड़ी फसल रौंद दी गई, कवर्धा में राष्ट्रपति के दत्तक पुत्रों के घरौंदे उजाड़ दिए गए तथा बलौदा बाजार और बिलासपुर में दावाकर्ताओं के खिलाफ फ़र्ज़ी मुकदमे दर्ज कर दमन कर दिया गया ।

यह स्पष्ट है कि प्रदेश में वनाधिकार कानून का सही क्रियान्वयन नही हो सका है और जब क्रियान्वयन  ही विद्वेषपूर्ण हो तो दावों और अधिकारों को मान्यता प्रदान करने की प्रक्रिया कैसे विधिसम्मत हो सकता है ? छत्तीसगढ़ पी यू सी एल ने संसद में पारित वनाधिकार कानून का विधिसम्मत पक्ष लेते हुए लाखों आदिवासियों और अन्य परंपरागत वनवासियों के नागरिक अधिकारों की संरक्षा का पुरजोर मांग की है।

बिलासपुर प्रेस क्लब में एक पत्रकार वार्ता लेकर सर्व आदिवासी समाज के प्रदेश उपाध्यक्ष सुभाष परते, उरांव समाज विकास समिति की अध्यक्ष रंगिया प्रधान, गोंड समाज बिलासपुर की अध्यक्ष वंदना उइके, कंवर समाज की उपाध्यक्ष सविता साय ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का उपरोक्त आदेश राज्य सरकार द्वारा प्रस्तुत शपथ पत्र के आधार पर दिया गया है। राज्य सरकार ने यह शपथ पत्र प्रस्तुत किया गया है कि 20095 ऐसे मामले हैं जिनका दावा निरस्त किया गया है। इनमें से 4830 परिवारों को खाली कराया जा चुका है। इन परिवारों में आदिवासी परिवार और अन्य परिवार सम्मिलित हैं। इस फैसले से आदिवासी और जंगल में रहने वाले लोगों में डर का माहौल है। सरकार से उन्होंने इन्होंने इस मामले में पुनरीक्षण याचिका दायर करने की मांग की है।

 

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