बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण आदेश में स्पष्ट किया है कि बिजली ट्रांसमिशन लाइन जैसे जनहित कार्यों के लिए भूमि मालिक की पूर्व सहमति आवश्यक नहीं है। अदालत ने कहा कि ऐसे मामलों में भूमि अधिग्रहण नहीं होता, बल्कि मालिकाना हक भू-स्वामी के पास ही रहता है, और वह केवल मुआवज़े का पात्र होता है, निर्माण रोकने का हक नहीं रखता।
यह आदेश न्यायमूर्ति अमितेन्द्र किशोर प्रसाद की एकलपीठ ने छत्तीसगढ़ स्टेट पावर ट्रांसमिशन कंपनी लिमिटेड (CSPTCL) के पक्ष में सुनाया। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि विद्युत अधिनियम, 2003 और टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 के तहत इस तरह के निर्माण के लिए पूर्व सहमति जरूरी नहीं है, लेकिन कंपनी को भूमि में प्रवेश से पहले सूचना देना अनिवार्य है।
मामले में कोरबी गांव (बलौदा तहसील, जांजगीर-चांपा जिले) के 94 वर्षीय किसान ने याचिका दाखिल कर आरोप लगाया था कि उनकी 8.73 एकड़ कृषि भूमि पर CSPTCL द्वारा बिना सूचना और अनुमति के 16 गड्ढे खोदकर ट्रांसमिशन टावर का निर्माण शुरू कर दिया गया, जिससे उनकी लगभग 4.86 एकड़ जमीन प्रभावित हुई है। याचिकाकर्ता ने इस निर्माण को रोकने, संरचनाओं को हटाने और मानसिक उत्पीड़न के लिए मुआवज़े की मांग की थी।
याचिकाकर्ता ने दावा किया कि 11 मार्च 2024 को राज्य सरकार से मिली मंजूरी के शर्तों का कंपनी ने पालन नहीं किया। साथ ही कहा कि 31 दिसंबर 2024 को भेजे गए कानूनी नोटिस की भी अनदेखी की गई, और बिना भौतिक निरीक्षण के मुआवज़ा नोटिस जारी कर दिए गए, जिनमें कुछ खसरों के लिए कोई मुआवज़ा नहीं दिया गया।
CSPTCL की ओर से प्रस्तुत अधिवक्ताओं ने तर्क दिया कि 24 जून 2024 और 22 जनवरी 2025 को मुआवज़ा प्रस्तावित किया गया था, लेकिन याचिकाकर्ता ने उसे स्वीकार नहीं किया। उन्होंने यह भी बताया कि यह निर्माण कार्य राष्ट्रीय राजमार्ग 130A की वजह से ट्रांसमिशन लाइन के डायवर्जन के तहत किया गया, और यह राष्ट्रीय महत्व का प्रोजेक्ट है।
उन्होंने यह भी बताया कि 13 दिसंबर 2006 को राज्य सरकार द्वारा जारी अधिसूचना के तहत CSPTCL को टेलीग्राफ अथॉरिटी का दर्जा दिया गया है, जिससे उसे इस तरह के निर्माण की अनुमति मिलती है।
कोर्ट ने अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व निर्णयों का हवाला दिया, जिनमें कहा गया है कि बिजली ट्रांसमिशन जैसी परियोजनाएं राष्ट्रीय विकास के लिए जरूरी हैं, और इन्हें बाधित नहीं किया जाना चाहिए।
हाईकोर्ट ने अंतरिम आदेश रद्द करते हुए याचिकाकर्ता को मुआवज़ा लेने और CSPTCL को 60 दिनों के भीतर भुगतान करने का निर्देश दिया। साथ ही कहा गया कि निर्माण कार्य में कोई बाधा उत्पन्न न की जाए।