बिलासपुर छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि हिरासत में किसी की मौत सिर्फ कानून का उल्लंघन नहीं, बल्कि लोकतंत्र और मानवाधिकारों पर गंभीर चोट है। अदालत ने टिप्पणी की जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं, तो यह पूरे समाज के लिए खतरे की घंटी है।

जस्टिस संजय के. अग्रवाल और जस्टिस दीपक कुमार तिवारी की डिवीजन बेंच ने यह टिप्पणी 2016 में पुलिस हिरासत में मौत के मामले की सुनवाई के दौरान की। कोर्ट ने पाया कि पुलिसकर्मियों की मंशा भले ही हत्या की न रही हो, लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि पीटने से जान भी जा सकती है। इसी आधार पर कोर्ट ने इसे आईपीसी की धारा 304 भाग-1 (गैर इरादतन हत्या) के तहत मानते हुए उम्रकैद की सजा घटाकर 10 साल का कठोर कारावास कर दिया।

9 साल पुराना मामला 

यह घटना 2016 की है, जब ग्राम नरियरा निवासी सतीश नोरगे को नशे में हंगामा करने पर मुलमुला थाना पुलिस ने हिरासत में लिया था। कुछ घंटों बाद उसकी मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में उसके शरीर पर 26 जगह चोट के निशान मिले थे।

इस घटना के बाद थाना प्रभारी जितेंद्र सिंह राजपूत, कांस्टेबल सुनील ध्रुव, दिलहरण मिरी और सैनिक राजेश कुमार के खिलाफ आईपीसी की धारा 302/34 (हत्या और सामूहिक साजिश) के तहत मामला दर्ज किया गया था। 2019 में स्पेशल कोर्ट एट्रोसिटी ने चारों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।

हाई कोर्ट में अपील, सजा में राहत

चारों दोषियों ने इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की थी। वहीं मृतक की पत्नी ने सजा में किसी भी तरह की राहत का विरोध करते हुए कोर्ट में हस्तक्षेप आवेदन लगाया था।

हाई कोर्ट ने सुनवाई के बाद माना कि हत्या की सीधी मंशा साबित नहीं होती, इसलिए सजा को उम्रकैद से घटाकर 10 साल कर दिया गया।

एससी-एसटी एक्ट से बरी

इस मामले में एससी-एसटी एक्ट की धाराएं भी लगाई गई थीं, लेकिन हाई कोर्ट ने कहा कि अभियोजन यह साबित नहीं कर सका कि पुलिसकर्मियों को पता था कि मृतक अनुसूचित जाति से है। इसी आधार पर कोर्ट ने उनको एससी-एसटी एक्ट से बरी कर दिया।

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