अधिवक्ता श्रीवास्तव ने नेताम की ओर से रखी कई दलीलें 

नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के समक्ष आज छत्तीसगढ़ के संत कुमार नेताम की ओर से अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव ने राज्यपाल की शक्तियों और विधानसभा द्वारा पारित बिलों को रोकने के अधिकार पर महत्वपूर्ण तर्क प्रस्तुत किए। यह मामला राष्ट्रपति द्वारा सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को भेजे गए सवालों से संबंधित है, जिसमें पूछा गया है कि क्या राज्यपाल विधानसभा द्वारा पारित बिल को कानून बनने से रोक सकते हैं, क्या राज्य सरकार इसके खिलाफ हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर सकती है, और क्या राज्यपाल के फैसले की न्यायिक समीक्षा संभव है।

मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पी. नरसिम्हा और जस्टिस अतुल चांदूरकर की संविधान पीठ के समक्ष पिछले 10 दिनों से इस मामले की सुनवाई चल रही है।

अधिवक्ता सुदीप श्रीवास्तव ने तर्क दिया कि कानून बनाना लोकतंत्र की आधारशिला है और संविधान में इसे त्वरित प्रक्रिया के रूप में व्यवस्थित किया गया है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 213 का हवाला देते हुए कहा कि यदि राज्यपाल अध्यादेश को रोकने की शक्ति नहीं रखते, तो अनुच्छेद 200 के तहत विधानसभा से पारित बिल को रोकने की शक्ति कैसे हो सकती है। श्रीवास्तव ने उदाहरण दिया कि यदि कोई अध्यादेश विधानसभा से उसी रूप में पारित हो जाता है, तो राज्यपाल उसे बाद में रोक नहीं सकते। उनका कहना था कि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधे हैं और उनके पास स्वतंत्र रूप से बिल रोकने की शक्ति नहीं है, जब तक कि संविधान में स्पष्ट रूप से ऐसा न कहा गया हो।

श्रीवास्तव ने अनुच्छेद 200 में उल्लिखित “जितनी जल्दी हो सके” (As Soon As Possible) वाक्यांश की व्याख्या करते हुए अनुच्छेद 62 और 68 का जिक्र किया। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 62 में राष्ट्रपति के चुनाव के लिए “जितनी जल्दी हो सके” के साथ अधिकतम 6 महीने की समय सीमा दी गई है, जबकि अनुच्छेद 68 में उपराष्ट्रपति के चुनाव के लिए केवल “जितनी जल्दी हो सके” कहा गया है। इसका अर्थ यह नहीं कि उपराष्ट्रपति का चुनाव अनिश्चितकाल तक टाला जा सकता है, बल्कि यह और त्वरित होना चाहिए। इसी तरह, अनुच्छेद 200 में समय सीमा का उल्लेख न होने का मतलब यह नहीं कि राज्यपाल बिल को अनिश्चितकाल तक रोक सकते हैं।

उन्होंने यह भी तर्क दिया कि कई बार विधानसभा से बिल पारित होने के दो-तीन दिनों में ही राज्यपाल की स्वीकृति मिल जाती है, जिससे “जितनी जल्दी हो सके” का महत्व स्पष्ट होता है।

राज्य सरकारों द्वारा अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर करने पर आपत्तियों के जवाब में श्रीवास्तव ने कहा कि संविधान में राष्ट्रपति के खिलाफ संविधान उल्लंघन पर महाभियोग का प्रावधान है, लेकिन राज्यपाल के लिए ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। उन्होंने तर्क दिया कि अनुच्छेद 200 के तहत बिल को स्वीकृति न देना संविधान का उल्लंघन है, और चूंकि राज्यपाल राष्ट्रपति के प्रसादपर्यंत पद पर रहते हैं, इसलिए याचिका दायर करना ही एकमात्र विकल्प है। उन्होंने सुझाव दिया कि यदि राज्य सरकार की याचिका पर आपत्ति है, तो सदन के नेता के रूप में मुख्यमंत्री को प्रतिनिधित्व क्षमता में याचिका दायर करने की अनुमति दी जानी चाहिए।

संविधान पीठ इस मामले में आगे की सुनवाई जारी रखेगी, और यह मामला राज्यपाल की शक्तियों और विधायी प्रक्रिया पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है।

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