करुणा शुक्ला कभी 30 विधायकों के समर्थन के साथ सीएम पद की दावेदार थीं, 37 साल बाद भाजपा छोड़कर कांग्रेस में हुई थीं शामिल
सन् 1993 की बात है। छत्तीसगढ़ से विधानसभा चुनावों के लिये दिल्ली में भाजपा प्रत्याशियों की सूची को अंतिम रूप दिया जा रहा था। बलौदाबाजार सीट से करुणा शुक्ला का नाम भेजा गया था। स्व. अटल बिहारी बाजपेयी को इसकी जानकारी मिली। उन्होंने लालकृष्ण आडवाणी को फोन किया। कहा- छत्तीसगढ़ के बलौदाबाजार से करुणा शुक्ला का नाम आया होगा। मेरी भतीजी समझकर उसकी टिकट फाइनल नहीं कर देना है। दूसरे नाम भी आये होंगे, आप उन पर विचार कर लें। आडवाणी जी ने सूची निकाली तो पाया छत्तीसगढ़ की अन्य सीटों के लिये तो दो-दो तीन-तीन नाम आये हैं पर बलौदा बाजार सीट के लिये तो एक ही नाम है। आडवाणी जी ने अटलजी को फोन किया। कहा- करुणा का नाम मंडल, जिला के बाद प्रदेश स्तर से विधिवत प्रस्तावित होकर आया है। फिर भी आप ही कोई नाम सुझा दीजिये, इनकी टिकट काट देंगे। अब अटल जी के पास करुणा शुक्ला के नाम को रोकने का कोई कारण नहीं रह गया था।
टिकट मिलने के कुछ पहले करुणा शुक्ला इंदौर में थीं। वहां अटल बिहारी बाजपेयी जी टकरा गये। बाजपेयी जी से उन्होंने कहा- राजनीति में आ चुकी हूं, कुछ करना चाहती हूं। अटलजी अपने चिर-परिचित अंदाज में मुस्कुराये, कहा कुछ नहीं। उन्होंने अपना हाथ सामने किया, थोड़ा नीचे ले गये फिर धीरे-धीरे ऊपर उठाया..। और आशीर्वाद देकर चले गये। अटलजी का कहना था, नीचे से ऊपर आओ।
हर किसी को पता था कि वे अटल बिहारी बाजपेयी की भतीजी हैं, लेकिन उन्होंने राजनीति की सीढ़ियां तय करने के लिये इसका लाभ नहीं लिया। सन् 2014 में कांग्रेस प्रवेश करने के बाद उन्होंने पत्रकारों के बीच कहा भी था कि उन पर पूर्व प्रधानमंत्री बाजपेयी की भतीजी होने के कारण कई आरोप लगते हैं। लेकिन बाजपेयी जी यदि अपने परिवार को इतना महत्व देते, तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह नहीं वे खुद होतीं।
इस बारे में करुणा शुक्ला के एक करीबी, दावा करते हुए बताते हैं- सन् 2003 में जब मुख्यमंत्री के नाम पर विचार हो रहा था तो 30 विधायकों का समर्थन उनको था। यहां आये पर्यवेक्षकों के सामने भी उन्होंने अपनी पसंद बता दी और दिल्ली में भी इसकी सूचना संगठन के शीर्ष पदाधिकारियों को भेज दी। इस बार फिर अटलजी का फोन आ गया। उन्होंने करुणा शुक्ला से कहा- अपना नाम वापस लो।
करुणा शुक्ला कहती थीं कि मंडल और जिला स्तर पर 12 साल तक परिश्रम करने के बाद क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की सिफारिश पर उन्हें पहली बार विधानसभा टिकट मिली थी। भाजपा में जितने भी पद और दायित्व उन्हें सौंपे गये, सम्मान मिला सब उनको अपने परिश्रम की वजह से।
करुणा शुक्ला के पति डॉ. माधव शुक्ला बलौदाबाजार में जाने-माने चिकित्सक है। वैसे, डॉ. शुक्ला मूलतः मुंगेली के रहने वाले हैं। बिलासपुर जिला चिकित्सालय में भी पदस्थ रहे। बलौदाबाजार में पोस्टिंग के दौरान जब उन्हें लगा कि सरकारी सेवा में रहते हुए वे मरीजों की ज्यादा मदद नहीं कर पाते हैं, इस्तीफा दे दिया। फिर बलौदाबाजार में ही रह गये।
यहां डॉक्टर-मरीज का रिश्ता ऐसा बैठा, लोग उनसे आग्रह करने लगे कि राजनीति में आइये और चुनाव लड़िये। डॉक्टर ने कहा कि मैं राजनीति में चला गया तो आप लोगों का इलाज कौन करेगा? उनके मित्रों ने कहा- भाभी जी को लाइये। इस तरह करुणा शुक्ला राजनीति में आई। सन् 1989 में बलौदाबाजार मंडल की उपाध्यक्ष बनकर उन्होंने भाजपा में प्रवेश किया। फिर महिला मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष बना दी गईं। उसके बाद बलौदाबाजार से उनका अकेले नाम विधानसभा चुनाव के लिये भेजा गया और सन् 1993 में पहली बार वह विधायक चुनी गईं। उन्हें मध्यप्रदेश विधानसभा में बेस्ट एमएलए के खिताब से भी पुरस्कृत किया गया। इसके बाद भाजपा में उन्हें महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिलने लगीं। वे महिला मोर्चा की राष्ट्रीय अध्यक्ष भी बनाई गईं। 2004 में उन्होंने जांजगीर लोकसभा चुनाव जीता पर 2009 में कोरबा से डॉ. चरण दास महन्त से चुनाव हार गईं। इस चुनाव में छत्तीसगढ़ की अकेली लोकसभा सीट थी जहां से भाजपा को हार मिली। शेष सभी 10 सीटें भाजपा के खाते में गई थीं।
इसके बाद भाजपा में उन्होंने अपनी उपेक्षा को महसूस किया। उनके करीबी बताते हैं कि दरअसल पार्टी को लेकर उन्हें कोई नाराजगी नहीं थी। प्रत्यक्ष रूप से कई बार बात सामने आई कि डॉ. रमन सिंह इसके लिये जिम्मेदार थे, पर सच्चाई यह नहीं थी। उनसे भी ताकतवर संगठन के एक पदाधिकारी ने करुणा शुक्ला की जगह महिला प्रतिनिधित्व के लिये पार्टी में कुछ दूसरे नामों को आगे बढ़ाना शुरू किया। सन् 2013 के स्टार प्रचारकों की सूची से जब उनका नाम हटा तब यह साफ हो गया कि उन्हें अब भाजपा में अपना भविष्य नहीं दिखता। इस बार वे बेलतरा सीट से भाजपा की टिकट भी चाहती थीं लेकिन उनके नाम पर ही विचार नहीं किया गया। फिर तो, उन्होंने राजनांदगांव से कांग्रेस प्रत्याशी अलका मुदलियार के पक्ष में प्रचार भी किया, जहां से डॉ. रमन सिंह जीते।
फिर 37 साल तक भाजपा में रहने के बाद करुणा शुक्ला ने पार्टी छोड़ दी। भाजपा के तब राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने चुनावी मंच से उनका इस्तीफा स्वीकार करने की घोषणा की।
उन्हें कांग्रेस में लाने के लिये स्व. अजीत जोगी सन् 2013 के विधानसभा चुनाव से पहले ही प्रयास कर रहे थे, पर उस समय बात नहीं बनी। कई लोग मानते हैं कि यदि वे उस समय कांग्रेस में आ गई होतीं तो प्रदेश में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस को लड़ाई लड़ने में काफी मदद मिलती और कुछ सीटों के परिणाम भी अलग होते। कांग्रेस में लाने के लिये प्रयास जोगी का था लेकिन हाईकमान ने डॉ. चरण दास महंत, भूपेश बघेल आदि से सहमति लेने के बाद इस पर फैसला लिया। 2014 लोकसभा चुनाव में टिकट वितरण के आखिरी चरण में उनके नाम की घोषणा की गई। बिलासपुर से चुनाव लड़ते समय उन्होंने यहां से अपने पारिवारिक रिश्ते को याद दिलाया।इसी संसदीय सीट में मुंगेली भी है, जो उनका ससुराल है। सांसद रहते रेलवे भर्ती बोर्ड और अन्य केन्द्रीय संस्थानों के लिये गये संघर्ष को भी उन्होंने याद किया। पर बात नहीं। मोदी लहर में वह यह चुनाव भारी अंतर से हार गईं।
इसके बाद उन्हें सन् 2018 में राजनांदगांव से डॉ. रमन सिंह के विरुद्ध विधानसभा चुनाव लड़ाया गया। पूरे अभियान के दौरान यह लग रहा था कि वे कड़ी टक्कर दे रही हैं और कुछ भी परिणाम आ सकता है, पर वह 16 हजार 900 वोटों से हार गईं। डॉ. रमन सिंह की यह पिछले चुनावों के मुकाबले वोटों के अंतर के हिसाब से भी मुश्किल जीत थी।
कोरोना संक्रमण से पीड़ित करुणा शुक्ला ने आज रायपुर के एक निजी चिकित्सालय में अंतिम सांसे लीं।
उनका पूरा राजनैतिक जीवन बेदाग रहा। उनमें लॉबिंग की कला नहीं थी, जो आम तौर पर राजनीति में जरूरी है। वह सेवा की ही भावना से अपने पति द्वारा सौंपी गई जिम्मेदारी को पूरा करने के लिये राजनीति में थीं। उन्होंने अटल जी की भतीजी होने का लाभ तो लिया ही नहीं, सांसद और विधायक होने का भी कोई फायदा नहीं लिया। देखा गया है कि सांसद विधायकों के बेटे-बेटियां प्रशासनिक अधिकारी, सफल कारोबारी आसानी से बन जाते हैं। पर करुणा शुक्ला के मामले में ऐसा नहीं है। उनकी बेटी का विवाह बिलासपुर में हुआ है। वह एक निजी स्कूल में टीचर हैं। उनका बेटा राहुल भी बिलासपुर में एक निजी कम्पनी में इंजीनियर है। मुंगेली में इनके परिवार के ज्यादातर लोग भाजपा में ही हैं। उनके देवर गिरीश शुक्ला क्षेत्र के वरिष्ठ भाजपा नेताओं में से एक हैं। साफ छवि, सरलता, सहजता और सादगी के साथ सार्वजनिक जीवन बिताते हुए छत्तीसगढ़ के राजनीतिक पटल पर वह अपनी अलग छाप छोड़कर विदा हुई हैं।