बिलासपुर। छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने एक मूक-बधिर युवती के साथ अमानवीय सामूहिक उत्पीड़न के मामले में पांच दोषियों की सज़ा को बरकरार रखते हुए न्याय का संदेश दिया। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और न्यायमूर्ति बिभु दत्ता गुरु की खंडपीठ ने पीड़िता की सीमित संचार क्षमता के बावजूद उसकी गवाही की सच्चाई पर भरोसा जताया और फोरेंसिक व डीएनए साक्ष्यों के आधार पर सजा को पुष्ट किया।

दोषियों—संजीव कुमार कुजूर, सूरजदास, डोले कुजूर, कृष्ण कुमार, और गौरीशंकर—को अतिरिक्त सत्र न्यायालय, बिलासपुर ने भारतीय दंड संहिता की धारा 366, 342 और 376 (डी) के तहत 25 वर्षों की कठोर सज़ा सुनाई थी। इन सभी ने उच्च न्यायालय में सज़ा को चुनौती दी थी।

यह वीभत्स घटना 25 अगस्त, 2019 की है, जब मरवाही जिले के रतंगा बाजार से 22 वर्षीय पीड़िता का अपहरण कर उसे राजाडीह के गगनिटोला तालाब ले जाया गया था। वहां आरोपियों ने उसके हाथ-पैर बांधकर उसकी अस्मिता को रौंदा। पीड़िता किसी तरह रात में घर लौटने में सफल रही और उसने अपनी मां और मौसी को इशारों में घटना का पूरा ब्यौरा दिया, जिसके बाद पुलिस में तत्काल शिकायत दर्ज कराई गई।

अपील में पीड़िता की गवाही की प्रामाणिकता और फोरेंसिक सबूतों की प्रक्रियाओं पर सवाल उठाए गए। बचाव पक्ष के वकील, योगेंद्र चतुर्वेदी ने यह तर्क दिया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 119 के तहत पीड़िता की संचार सीमाएं अभियोजन पक्ष के दावों को कमजोर बनाती हैं। इसके अलावा, डीएनए साक्ष्यों में खून के नमूनों के संग्रह में प्रक्रियागत त्रुटियों और एफआईआर में देरी का भी हवाला दिया गया।

उप महाधिवक्ता, शशांक ठाकुर ने तर्क दिया कि पीड़िता की गवाही को चिकित्सा और डीएनए प्रमाणों से समर्थन मिला है, जो इस अपराध को अचूक रूप से साबित करते हैं। उन्होंने जोर दिया कि पीड़िता ने संकेतों के माध्यम से आरोपियों की पहचान की और अपनी कठिनाइयों के बावजूद लगातार सच्चाई बयान की।

हाईकोर्ट ने पीड़िता की विश्वसनीय गवाही और फोरेंसिक साक्ष्यों के आधार पर दोषियों की दलीलों को खारिज करते हुए कहा कि पीड़िता की गवाही, यद्यपि संकेतों और इशारों के माध्यम से थी, घटना की भयावहता को स्पष्ट रूप से उजागर करती है।

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