आज से 132 वर्ष पहले, 11 सितंबर 1893 को शिकागो में आयोजित विश्व धर्मसभा में स्वामी विवेकानंद ने अपना ऐतिहासिक संबोधन दिया था। “अमेरिका के भाइयो और बहनो” से शुरू हुए उनके भाषण ने न केवल सभा को मंत्रमुग्ध किया बल्कि भारत की आध्यात्मिक परंपरा को दुनिया के सामने गौरवपूर्ण रूप से प्रस्तुत किया।

31 मई 1893 – समुद्र यात्रा की शुरुआत

स्वामी विवेकानंद की शिकागो यात्रा कोई साधारण घटना नहीं थी। 31 मई 1893 को वे समुद्री जहाज़ से बम्बई से अमेरिका के लिए रवाना हुए। यह लगभग 8000 किलोमीटर लंबी यात्रा थी, जो पूरे दो महीने में पूरी हुई।

28 जुलाई 1893 – शिकागो पहुँचना और नई समस्या

28 जुलाई को स्वामीजी शिकागो पहुँचे। वहाँ उन्हें पता चला कि विश्व धर्म सभा तो सितंबर में है। उनके सामने दो बड़ी समस्याएँ थीं—पहली, अमेरिका जैसे महंगे देश में दो महीने कैसे बिताएँ? और दूसरी, सम्मेलन में प्रवेश कैसे मिले? लेकिन स्वामीजी के दृढ़ संकल्प ने दोनों मुश्किलों का हल निकाला।

बोस्टन प्रवास और प्रोफेसर राइट से मुलाकात

खर्च बचाने के लिए वे बोस्टन चले गए। वहीं उनकी मुलाकात हार्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर राइट से हुई। प्रोफेसर राइट स्वामीजी की विद्वता से गहराई से प्रभावित हुए। जब उन्हें पता चला कि स्वामीजी के पास धर्मसभा का कोई परिचय पत्र नहीं है और आवेदन की अंतिम तिथि भी निकल चुकी है, तब उन्होंने धर्मसभा के अध्यक्ष डॉ. बेराज के नाम एक सिफारिशी पत्र लिखा। उन्होंने लिखा—ये इतने बड़े विद्वान हैं कि हमारे विश्वविद्यालय के सभी प्रोफेसर मिलकर भी इनकी बराबरी नहीं कर सकते।

शिकागो की कठिन रात

सितंबर की शुरुआत में स्वामीजी बोस्टन से शिकागो रवाना हुए, पर रास्ते में उनका पत्र गुम हो गया और धन भी समाप्त हो गया। विदेशी भूमि पर रात में वे अकेले खड़े थे। थके-हारे स्वामीजी रेल माल-गोदाम में एक लकड़ी के बॉक्स में घुसकर उकड़ूँ बैठ सो गए।

सहारा बनीं मिसेज़ हेल

सुबह उन्होंने घरो में जाकर धर्मसभा का पता पूछना शुरू किया, पर किसी ने मदद नहीं की। थककर वे फुटपाथ पर बैठ गए। तभी एक संभ्रांत महिला, श्रीमती जॉर्ज डब्ल्यू हेल ने उन्हें देखा और उनके ओजस्वी चेहरे से प्रभावित हुईं। बातचीत के बाद वे उन्हें घर ले गईं, जलपान कराया और धर्मसभा के कार्यालय भी लेकर गईं। वहाँ स्वामीजी को अतिथि के रूप में स्वीकार कर लिया गया।

11 सितम्बर 1893 – ऐतिहासिक क्षण

आखिरकार 11 सितंबर का दिन आ पहुँचा। शिकागो के आर्ट इंस्टिट्यूट के कोलंबस हॉल में सर्वधर्म सम्मेलन का उद्घाटन हुआ। 6 से 7 हजार श्रोता हॉल में मौजूद थे। विभिन्न धर्मों के प्रतिनिधि एक-एक कर मंच पर जा रहे थे और प्रभावशाली वाणी में परिचय दे रहे थे।
स्वामीजी का आत्मविश्वास क्षणभर डगमगाया, परंतु उन्होंने नेत्र बंद कर गुरु और माँ सरस्वती का स्मरण किया। जब अध्यक्ष ने आग्रहपूर्वक उन्हें बुलाया तो वे उठ खड़े हुए।

स्वामीजी का तेजस्वी मुखमंडल दमक उठा। मंच से उन्होंने कहा—अमेरिका के भाइयो और बहनो। उनके इन शब्दों में गहरी आत्मीयता और विश्व-बंधुत्व का भाव था। पूरा हॉल गूँज उठा। दो मिनट तक लगातार तालियाँ बजती रहीं। अमेरिका के लोगों के लिए “बहन” शब्द का यह पवित्र संबोधन नया और हृदय को छू लेने वाला था।

हिंदू धर्म का गौरवपूर्ण परिचय

स्वामीजी ने हिंदू धर्म को “सभी धर्मों की जननी” बताते हुए सहिष्णुता और बंधुत्व का संदेश दिया। उन्होंने भारत की प्राचीन संस्कृति, वैदिक परंपरा और साधु-संतों की विरासत का परिचय कराया। श्रोता मंत्रमुग्ध होकर सुनते रहे और उन्हें सर्वश्रेष्ठ वक्ता के रूप में स्वीकार किया गया।

प्रभावशाली व्याख्यान – “पेपर ऑन हिंदुइज्म”

स्वामीजी ने धर्मसभा में पेपर ऑन हिंदुइज्म शीर्षक से एक ऐतिहासिक व्याख्यान भी दिया। यह व्याख्यान भारतीय दृष्टि से आज भी महत्वपूर्ण माना जाता है और युवाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है।

17 दिन का सम्मेलन और स्वामीजी की लोकप्रियता

सम्मेलन 17 दिन चला। आयोजक जानते थे कि स्वामीजी का भाषण जब भी होता है, श्रोता ऊबना भूल जाते हैं। इसलिए उनका वक्तव्य उस समय रखा जाता, जब लोगों का ध्यान बिखरने लगता। और जैसे ही घोषणा होती कि स्वामीजी बोलेंगे, पूरा हॉल शांत हो जाता।


 शिकागो भाषण की खास बातें- 

“अमेरिका के भाइयो और बहनो,”
इन शब्दों के साथ जब स्वामी विवेकानंद ने अपना संबोधन शुरू किया तो पूरा हॉल तालियों से गूँज उठा। यह संबोधन लगभग दो मिनट तक चलता रहा और वहाँ मौजूद हजारों श्रोता भावविभोर हो गए।

उन्होंने कहा कि यह सभा सभी धर्मों को एक मंच पर लाकर यह सिद्ध कर रही है कि दुनिया में सहिष्णुता और भाईचारा ही मानवता का सच्चा आधार है। भारत की परंपरा हमेशा से विभिन्न विचारों और आस्थाओं को स्वीकार करती आई है। उन्होंने गीता का हवाला देते हुए बताया कि जैसे लोग अलग-अलग मार्गों से ईश्वर की ओर जाते हैं, वैसे ही सभी धर्म एक ही परमसत्य तक पहुँचाते हैं।

स्वामी विवेकानंद ने कहा कि भारत ने सहिष्णुता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ दुनिया को सिखाया है। भारत ने न केवल सभी धर्मों का सम्मान किया, बल्कि उन्हें अपने देश में स्थान भी दिया। यह वह भूमि है जिसने यहूदियों को शरण दी और पारसियों की प्राचीन जाति को सुरक्षित रखा।

उन्होंने धार्मिक कट्टरता और असहिष्णुता को मानव इतिहास की सबसे बड़ी बाधा बताते हुए कहा कि इन्हीं कारणों से धरती पर हिंसा, युद्ध और रक्तपात हुआ। उनके अनुसार, अब समय आ गया है कि हम संकीर्णता को त्यागकर आपसी भाईचारे और सहयोग की ओर बढ़ें।

भाषण के अंत में उन्होंने विश्व को यह संदेश दिया कि सम्पूर्ण मानवजाति एक परिवार है और सभी धर्मों का उद्देश्य मनुष्य को सत्य और शांति के मार्ग पर ले जाना है।

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