14 अहम सवाल भेजे, अब गठित करनी होगी कम से कम 5 जजों की संवैधानिक पीठ
नई दिल्ली। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने विधेयकों को मंजूरी देने के मामले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई समय-सीमा की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत सर्वोच्च न्यायालय से राय मांगते हुए 14 अहम प्रश्नों की सूची सौंपी है। यह पहल 8 अप्रैल 2025 को आए उस फैसले के परिप्रेक्ष्य में है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा विधेयकों को रोके रखने पर समय-सीमा तय की थी।
इस ऐतिहासिक निर्णय के बाद देश की राजनीतिक और संवैधानिक व्यवस्था में बहस तेज हो गई थी, जिसके चलते अब राष्ट्रपति ने खुद इस मसले को स्पष्ट करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है।
❖ राष्ट्रपति के 14 सवालों में प्रमुख बिंदु:
- संवैधानिक अधिकारों की सीमा: क्या सुप्रीम कोर्ट संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राष्ट्रपति और राज्यपालों पर विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा तय कर सकता है, जबकि संविधान में ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं है?
- विवेकाधिकार की समयबद्धता: क्या राष्ट्रपति या राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों द्वारा विवेकाधिकार के प्रयोग को समय-सीमा में बांधा जा सकता है?
- न्यायिक समीक्षा का दायरा: क्या विधेयक के कानून बनने से पहले राष्ट्रपति या राज्यपाल के निर्णय न्यायिक समीक्षा के अंतर्गत आते हैं?
- अनुच्छेद 142 की सीमा: क्या सुप्रीम कोर्ट अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों का उपयोग कर राष्ट्रपति/राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों को संशोधित कर सकता है?
- संवैधानिक पीठ की आवश्यकता: क्या संविधान की ऐसी व्याख्या को पांच जजों की संविधान पीठ को सौंपना जरूरी है?
- संघ-राज्य विवाद निपटान: क्या अनुच्छेद 131 से इतर किसी और माध्यम से सुप्रीम कोर्ट संघ और राज्यों के बीच विवाद सुलझा सकता है?
- राज्यपालों के विकल्प: क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपालों के पास कोई अतिरिक्त या स्पष्ट विकल्प उपलब्ध हैं?
❖ पृष्ठभूमि: सुप्रीम कोर्ट का फैसला और बढ़ता विवाद
8 अप्रैल 2025 को सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने तमिलनाडु के राज्यपाल द्वारा लंबित रखे गए 10 विधेयकों को मंजूरी न देने को गलत ठहराया और फैसला सुनाते हुए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समय-सीमा निर्धारित कर दी। इस फैसले ने भारतीय संघीय ढांचे में एक नई बहस को जन्म दिया।
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ और केंद्र सरकार ने इस निर्णय की आलोचना करते हुए कहा कि इससे संविधान में शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन होता है। राष्ट्रपति मुर्मू ने भी इसे संवैधानिक संतुलन के खिलाफ मानते हुए न्यायालय से औपचारिक राय मांगी है।
❖ प्रतिक्रियाएं
- उपराष्ट्रपति की आपत्ति: उपराष्ट्रपति ने कोर्ट के आदेश को संवैधानिक व्यवस्था के विपरीत बताया।
- केंद्र सरकार का विरोध: केंद्र ने इस आदेश को सुप्रीम कोर्ट का सीमा लांघना करार दिया।
- राजनीतिक बहस: सत्तापक्ष और विपक्ष दोनों में इसे लेकर तीखी प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं। कुछ इसे विधायिका की स्वायत्तता का उल्लंघन बता रहे हैं, तो कुछ इसे जवाबदेही का स्वागतयोग्य प्रयास मान रहे हैं।
❖ अब आगे क्या?
इस संवैधानिक मुद्दे पर फैसला लेने के लिए अब सुप्रीम कोर्ट के नव नियुक्त मुख्य न्यायाधीश जस्टिस बीआर गवई को कम से कम पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ गठित करनी होगी। यह पीठ तय करेगी कि विधेयकों की स्वीकृति से जुड़े मामलों में राष्ट्रपति और राज्यपालों की भूमिका क्या होनी चाहिए और क्या उनके निर्णयों पर समय-सीमा लागू की जा सकती है।
❖ सीमाएं स्पष्ट करने की पहल :
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू का यह कदम भारतीय संविधान की व्याख्या और संवैधानिक संस्थाओं की सीमाओं को स्पष्ट करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल माना जा रहा है। उनके पूछे गए सवाल न सिर्फ विधायी प्रक्रिया में पारदर्शिता और स्पष्टता लाने का प्रयास हैं, बल्कि यह भारत के संघीय ढांचे और शक्ति संतुलन की नई परिभाषा तय करने की ओर भी संकेत करते हैं।