छत्तीसगढ़ का मंत्रिमंडल विस्तार सियासी संदेश देने में सफल हो सकता है, पर पार्टी के भीतर की खींचतान को नजरअंदाज करना भारी पड़ सकता है। पिछले 10-12 दिनों की अटकलों—नए चेहरों की एंट्री और वरिष्ठों की अनदेखी—ने यह साफ कर दिया कि सत्ता का खेल अब अनुभव से ज्यादा वफादारी और रणनीति पर टिका है। क्या यह असंतोष संगठन को तोड़ेगा या साय इसे संभाल पाएंगे? आने वाला समय ही बताएगा।

रायपुर। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री विष्णु देव साय ने आज मंत्रिमंडल का लंबे इंतजार के बाद विस्तार किया, जिसमें गजेंद्र यादव, राजेश अग्रवाल और गुरु खुशवंत सिंह को शामिल किया गया। यह विस्तार, जो पिछले 10-12 दिनों से राजनीतिक गलियारों में चर्चा और अटकलों का विषय रहा, अब 14 सदस्यों की संवैधानिक सीमा को पूरा कर चुका है। अब मंत्रिमंडल को लेकर कोई चर्चा नहीं होने वाली है। लेकिन यह फैसला उतना साधारण नहीं जितना दिखता। इसके पीछे की राजनीति और इससे उपजे असंतोष ने राज्य की सियासी हलचल को तेज कर दिया है।

चयन के पीछे की राजनीति

तीनों नए मंत्री पहली बार चुने गए विधायक हैं। गजेंद्र यादव की पृष्ठभूमि आरएसएस और भाजपा से जुड़ी है, जबकि राजेश अग्रवाल (2017 में कांग्रेस से भाजपा में शामिल) और गुरु खुशवंत सिंह (2023 चुनाव से तीन माह पहले कांग्रेस छोड़कर आए, गुरु बालकदास के पुत्र) परिवर्तित चेहरों के रूप में उभरे हैं। पिछले हफ्तों की गॉसिप और सूत्रों के अनुसार, यह विस्तार दिल्ली से हरी झंडी के बाद हुआ, जहां भाजपा हाईकमान ने क्षेत्रीय संतुलन और कांग्रेस विरोधी नेताओं को साधने की रणनीति पर जोर दिया। गुरु खुशवंत का चयन, जो सतनामी समुदाय के प्रभावशाली नेता के बेटे हैं, सतनामी वोटबैंक को मजबूत करने की कोशिश हो सकती है, खासकर 2023 चुनाव में उनके पिता के प्रभाव को देखते हुए। राजेश अग्रवाल का समावेश सरगुजा क्षेत्र के लिए एक संदेश है, जिन्होंने कांग्रेस के गढ़ में मामूली मतों, सौ से भी कम-से सेंध मारी। इधर, गजेंद्र यादव को आरएसएस लॉबी को शांत करने के लिए लाया गया लगता है।

सोशल मीडिया और स्थानीय चर्चाओं में यह भी उछला कि मुख्यमंत्री का कद बरकरार रखने के लिए अनुभवी नेताओं को दरकिनार किया जा रहा है। कद्दावर नेता बृजमोहन अग्रवाल को ऐतिहासिक जीत के बावजूद इस्तीफा लेकर दिल्ली शिफ्ट किया गया। यह साय की सत्ता को चुनौती न देने वाले चेहरों को तरजीह देने की चाल हो सकती है।

वरिष्ठों की अनदेखी और समर्थकों का आक्रोश

इस विस्तार से वरिष्ठ भाजपा नेताओं राजेश मूणत, अमर अग्रवाल, अजय चंद्राकर, और धरमलाल कौशिक जैसे दिग्गजों को बाहर रखा गया, जो डॉ. रमन सिंह के शासन में पार्टी की नींव रखने वाले योद्धा रहे। इन नेताओं के समर्थकों ने सोशल मीडिया पर नाराजगी जताई है। सोशल मीडिया पर एक ने कहा, “जो लोग ABVP, युवा मोर्चा और RSS में पसीना बहाया, उन्हें किनारे कर नए-नवेले चेहरों को लाना पार्टी के अंदर असंतोष को भड़काएगा।” मूणत और चंद्राकर के समर्थकों ने इसे ‘पुराने समर्पितों का अपमान’ करार दिया, जबकि अमर अग्रवाल के खेमा इसे ‘क्षेत्रीय उपेक्षा’ मान रहा है। एक बड़े अख़बार ने आज ही लिख दिया है कि इस नाराज़गी के चलते वे विधायक पद से इस्तीफा भी दे सकते हैं।

संभावित कारण और राष्ट्रीय नीति

क्या यह राष्ट्रीय भाजपा की वह नीति है जो नए चेहरों और परिवर्तित नेताओं पर दांव लगा रही है? सूत्रों के मुताबिक, दिल्ली में हुई बैठकों में जोर दिया गया कि कांग्रेस से आए नेताओं को साधकर विपक्ष को कमजोर किया जाए। साथ ही, साय का कद बरकरार रखने के लिए उनके समकक्ष अनुभवी नेताओं को हाशिए पर रखा गया। बृजमोहन अग्रवाल का लोकसभा में शिफ्ट होना भी इसी रणनीति का हिस्सा हो सकता है। उनका प्रभाव सीमित कर साय को मजबूत करना। लेकिन यह दीर्घकालिक जोखिम भरा है, क्योंकि असंतुष्ट वरिष्ठों का गुस्सा 2028 के चुनाव तक संगठन को प्रभावित कर सकता है।

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