तीस साल बाद मिला इंसाफ: SECL की गलती से मिली दूसरे को नौकरी, अब हाईकोर्ट ने असली हकदार को देने का आदेश
बिलासपुर, 4 जुलाई।
कोरबा जिले की एक महिला को आखिरकार 30 साल बाद न्याय मिला है। हाईकोर्ट ने साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स लिमिटेड (SECL) को फटकार लगाते हुए उस महिला के बेटे को नौकरी देने का आदेश दिया है, जिसकी जमीन कोल खनन के लिए अधिग्रहित की गई थी। कोर्ट ने SECL के उस पुराने आदेश को रद्द कर दिया, जिसके तहत नौकरी एक फर्जी व्यक्ति को दे दी गई थी।
न्यायमूर्ति संजय के. अग्रवाल की एकलपीठ ने कहा कि सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों को ईमानदारी और सद्भाव के साथ काम करना चाहिए। गलती अगर कंपनी की थी, तो उसकी सज़ा एक सामान्य नागरिक को नहीं मिलनी चाहिए।
क्या है मामला?
कोरबा जिले के दीपका गांव की निवासी निर्मला तिवारी की 0.21 एकड़ जमीन को 1981 में कोल खदान के लिए अधिग्रहित किया गया था। इसके एवज में SECL को नियमों के मुताबिक उन्हें मुआवजा और परिवार के एक सदस्य को नौकरी देना था।
महिला को तो 1985 में मुआवजा मिल गया, लेकिन नौकरी उनके बेटे की जगह एक फर्जी व्यक्ति नंद किशोर जायसवाल को दे दी गई, जिसने खुद को निर्मला तिवारी का बेटा बताकर दस्तावेज बनवा लिए थे।
जब निर्मला को इस धोखाधड़ी का पता चला, तो उन्होंने SECL को जानकारी दी और लंबी लड़ाई लड़ी। इसके बाद 2016 में SECL ने नंद किशोर को नौकरी से हटा दिया, लेकिन इसके बाद भी महिला के बेटे उमेश तिवारी को नौकरी नहीं दी गई।
SECL का तर्क था कि जब जमीन अधिग्रहित हुई, तब न तो जमीन महिला के नाम पर थी, और न ही उमेश तिवारी का जन्म हुआ था।
हाईकोर्ट ने क्या कहा?
हाईकोर्ट ने SECL की इस दलील को खारिज करते हुए साफ कहा कि म्युटेशन (नामांतरण) का रिकॉर्ड सिर्फ कब्जे का प्रमाण होता है, स्वामित्व का नहीं। जब मुआवजा महिला को दिया गया, तो माना गया कि वो ही जमीन की मालिक थीं।
साथ ही कोर्ट ने कहा कि अगर पहले गलती से किसी गलत व्यक्ति को नौकरी दी गई, तो उसे सुधारते समय सही व्यक्ति को हक मिलना चाहिए। इस आधार पर बेटे को नौकरी से वंचित नहीं किया जा सकता कि वह अधिग्रहण के समय पैदा नहीं हुआ था।
कोर्ट का फैसला
हाईकोर्ट ने SECL को आदेश दिया कि 6 जुलाई 2017 से उमेश तिवारी को नियुक्ति दी जाए और उस दिन से अब तक की सभी सुविधाएं और वेतन लाभ भी दिए जाएं। कोर्ट ने इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट के एक पुराने निर्णय (मोहन महतो बनाम सेंट्रल कोलफील्ड्स लिमिटेड) का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि सार्वजनिक उपक्रम राज्य के समान होते हैं और उन्हें निष्पक्ष, पारदर्शी और न्यायपूर्ण तरीके से काम करना चाहिए।
तीन दशक की जद्दोजहद के बाद आखिरकार न्याय मिला है। यह फैसला उन हजारों लोगों के लिए मिसाल बन सकता है, जिनकी ज़मीनें विकास के नाम पर तो ली जाती हैं, लेकिन बदले में उन्हें न्याय और हक के लिए सालों तक भटकना पड़ता है।