समाचार सार

  • सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को 65 लाख हटाए गए मतदाताओं की सूची और कारण 19 अगस्त तक सार्वजनिक करने का आदेश दिया।
  • सूची पंचायत, ब्लॉक, जिला स्तर पर स्थानीय भाषा में चस्पा करनी होगी।
  • आधार कार्ड समेत 11 पहचान दस्तावेज मान्य होंगे।
  • आदेश पालन की रिपोर्ट 22 अगस्त तक कोर्ट को सौंपनी होगी।
  • विपक्ष ने इसे लोकतंत्र की जीत कहा, आयोग ने प्रक्रिया की संवैधानिकता का समर्थन किया।
  • यह फैसला बिहार चुनाव में मतदाता अधिकारों की सुरक्षा और चुनाव की पारदर्शिता के लिए बड़ा कदम है।

नई दिल्ली। बिहार में विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (SIR) को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने 12 से 14 अगस्त की सुनवाई के बाद चुनाव आयोग को बड़ा झटका देते हुए एक ऐतिहासिक आदेश दिया है। न्यायालय ने चुनाव आयोग को निर्देश दिया है कि वह ड्राफ्ट मतदाता सूची से हटाए गए करीब 65 लाख मतदाताओं की पूरी सूची और उनके हटाए जाने के कारण 19 अगस्त तक सार्वजनिक करे। यह सूची जिला स्तर, पंचायत भवन, ब्लॉक कार्यालय और चुनाव आयोग की वेबसाइट पर ऐसे तरीके से लगाई जाए कि आम लोग आसानी से देख और समझ सकें। आयोग को 22 अगस्त तक आदेश के पालन की रिपोर्ट भी सुप्रीम कोर्ट में प्रस्तुत करनी होगी।

सुनवाई में उठाए गए सख्त सवाल और बहस

सुनवाई के पहले दिन, 12 अगस्त को, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने चुनाव आयोग की SIR प्रक्रिया पर बड़े सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि 65 लाख से अधिक मतदाताओं के नाम बिना स्पष्ट कारण हटाए गए हैं, जबकि कई के पास आधार, राशन कार्ड और EPIC जैसे वैध पहचान-पत्र मौजूद हैं। उन्होंने बिहार जैसे राज्यों में दस्तावेजों की कमी को उजागर करते हुए यह भी बताया कि कई गरीब और ग्रामीण मतदाता जन्म प्रमाणपत्र जैसी जरूरी कागजात भी नहीं रख पाते हैं। इस बात पर जस्टिस सूर्यकांत ने सवाल किया कि अगर बिहार में ऐसा होता है तो बाकी देश की स्थिति क्या होगी? उन्होंने आयोग से यह भी पूछा कि इतने बड़े पैमाने पर नाम हटाने के कारण सार्वजनिक क्यों नहीं किए जा रहे हैं।

13 अगस्त को हुई सुनवाई में अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने दस्तावेजों की संख्या सात से बढ़ाकर ग्यारह करने पर भी आपत्ति जताई। उनका तर्क था कि बिहार में पासपोर्ट, स्थायी निवास प्रमाणपत्र जैसे दस्तावेज कम लोगों के पास होते हैं, जिससे गरीबों और वंचितों के वोटर सूची से हटने का खतरा बढ़ता है। वहीं, चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता राकेश द्विवेदी ने इसके बचाव में कहा कि यह सुधार डुप्लीकेट, मृतक और प्रवासी मतदाताओं के नाम हटाने के लिए जरूरी है, और लगभग 6.5 करोड़ मतदाताओं को दस्तावेज जमा करने की आवश्यकता नहीं पड़ी है।

जन आंदोलन के प्रमुख योगेंद्र यादव ने कोर्ट को बताया कि कई मतदाताओं को गलत तरीके से ‘मृत घोषित’ कर दिया गया है। जो नाम डिलीट किए गए उनमें महिलाएं ज्यादा है, उसे भी गलत बताया।  उन्होंने इस पूरी प्रक्रिया को ‘मनमाना और अव्यवहारिक’ बताते हुए रोकने की मांग की।

सुप्रीम कोर्ट का 14 अगस्त का आदेश और निर्देश

14 अगस्त को सुनवाई के दौरान जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की खंडपीठ ने चुनाव आयोग को कठोर निर्देश दिए कि वे 19 अगस्त तक हटाए गए 65 लाख मतदाताओं की सूची और उनके नाम हटाने के कारण सार्वजनिक करें। यह सूची ग्राम पंचायत, ब्लॉक कार्यालय, जिला निर्वाचन कार्यालय और चुनाव आयोग की वेबसाइट पर स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि आम जनता इसे समझ सके और जहां गलती हो वहां आपत्ति दर्ज करा सके।

साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि आधार कार्ड समेत 11 प्रकार के पहचान दस्तावेज मान्य होंगे जिससे दस्तावेजों की कमी के कारण मतदाता वंचित न हों।

आयोग को 22 अगस्त तक अपने आदेश पालन की रिपोर्ट सुप्रीम कोर्ट में जमा करनी होगी। कोर्ट ने जोर दिया कि मतदाता अधिकारों की रक्षा राजनीतिक दलों या अधिकारियों की मनमानी के भरोसे नहीं छोड़ी जानी चाहिए, बल्कि पूरी पारदर्शिता होनी चाहिए।

आदेश का स्वागत किया तेजस्वी यादव ने

राजद नेता तेजस्वी यादव ने इस फैसले को ‘लोकतंत्र की बड़ी जीत’ करार दिया। उन्होंने कहा कि यह आदेश चुनाव आयोग की जवाबदेही बढ़ाएगा और बिहार विधानसभा चुनाव को अधिक पारदर्शी और निष्पक्ष बनाएगा। तेजस्वी ने आरोप लगाया कि बीजेपी और उसके सहयोगी मतदाता सूची से नाम छिपाने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के आदेश ने उनकी इस साजिश को नाकाम कर दिया है। उन्होंने कहा, “बिहार लोकतंत्र की जननी है, और यह आदेश लोकतंत्र की रक्षा का प्रतीक है।”

वहीं चुनाव आयोग ने कहा कि यह प्रक्रिया पूर्णतः संवैधानिक और आवश्यक थी ताकि मृत, स्थानान्तरित और दोहरे नामों को हटाया जा सके। आयोग ने आश्वासन दिया कि किसी भी पात्र मतदाता का नाम बिना उचित सुनवाई के नहीं हटाया जाएगा।

 आखिर क्यों है यह मामला महत्वपूर्ण

यह फैसला बिहार विधानसभा चुनाव से पहले मतदाता सूची विवाद के बीच आया है। सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही पर जोर देते हुए साफ किया है कि मतदाता अधिकार सर्वोपरि हैं और उनके नाम हटाए जाने के कारणों की जानकारी सार्वजनिक की जानी चाहिए। इससे न केवल मतदाता सूची की विश्वसनीयता बढ़ेगी, बल्कि संभावित गलत हटाव और राजनीतिक हेराफेरी पर भी अंकुश लगेगा।

इस विवाद में मतदाता अधिकार संगठन, राजनीतिक दल, न्यायपालिका और चुनाव आयोग के बीच संवाद और टकराव जारी है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट का यह आदेश लोकतंत्र के हितों की रक्षा के लिए मील का पत्थर साबित होगा।

22 अगस्त को आयोग बताएगा, उसने क्या किया

यह पूरा घटनाक्रम लोकतंत्र की मजबूती, चुनावी पारदर्शिता और मतदाता अधिकारों की सुरक्षा के लिए एक नया अध्याय खोल रहा है। इस मामले की अगली सुनवाई 22 अगस्त को होनी है, जब आयोग को अपने आदेश अनुपालन की रिपोर्ट देनी होगी।

इस तरह, बिहार विधानसभा चुनाव की प्रक्रिया में वाजिब और जवाबदेह चुनाव सुनिश्चित करने के लिये सुप्रीम कोर्ट ने महत्वपूर्ण हस्तक्षेप किया है, जिससे मतदाता समुदाय को बड़ा सुरक्षा कवच मिला है।

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