बिलासपुर। पत्नी पर शादी से पहले गंभीर मानसिक बीमारी सिजोफ्रेनिया छिपाने का आरोप लगाकर विवाह रद्द करने और तलाक की मांग करने वाले पति को हाईकोर्ट से राहत नहीं मिली। हाईकोर्ट की डिवीजन बेंच ने फैमिली कोर्ट के फैसले को सही ठहराते हुए अपील खारिज कर दी।
जस्टिस रजनी दुबे और जस्टिस अमितेंद्र किशोर प्रसाद की बेंच ने कहा कि केवल मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन पेश कर देने से मानसिक बीमारी साबित नहीं होती। इसके लिए डॉक्टर की गवाही और अन्य ठोस सबूत जरूरी थे, जो पति की ओर से पेश नहीं किए गए।
भिलाई निवासी दंपती का विवाह 3 मार्च 2008 को हिंदू रीति-रिवाज से हुआ था। उनकी दो बेटियां हैं। पति का आरोप था कि शादी के बाद पत्नी का व्यवहार असामान्य हो गया। वह अचानक चिल्लाने लगती, घरेलू सामान तोड़ती, गाली-गलौज करती और बच्चों को पीटती थी। बाद में पता चला कि वह मनोवैज्ञानिक दवाइयां ले रही है। पति ने दावा किया कि पत्नी जन्म से ही सिजोफ्रेनिया की मरीज थी, लेकिन शादी से पहले यह तथ्य परिवार ने छिपाया।
अक्टूबर 2018 में पत्नी एक बेटी को लेकर मायके चली गई और फिर वापस नहीं लौटी। इसके बाद पति ने हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 12 के तहत धोखाधड़ी के आधार पर विवाह रद्द करने और क्रूरता के आधार पर तलाक की मांग की।
दुर्ग फैमिली कोर्ट में कई नोटिस के बावजूद पत्नी पेश नहीं हुई और मामला एकपक्षीय रूप से सुना गया। पति ने मेडिकल प्रिस्क्रिप्शन और अपने गवाह पेश किए। लेकिन फैमिली कोर्ट ने 4 जनवरी 2023 को याचिका खारिज करते हुए कहा कि मानसिक बीमारी के आरोप साबित करने के लिए ठोस मेडिकल साक्ष्य और डॉक्टर की गवाही जरूरी है। अब हाईकोर्ट ने भी इसी फैसले को बरकरार रखा।