अचानकमार अभयारण्य के लमनी गांव में मंगलवार को होगा अंतिम संस्कार, मुख्यमंत्री ने शोक जताया

बिलासपुर, 23 सितम्बर। अचानकमार अभयारण्य के आदिवासियों के बीच रहकर विगत 35 वर्षों से कार्य करने वाले प्रसिद्ध समाजसेवी और शिक्षाविद् डॉ. प्रभुदत्त खेरा का 91 वर्ष की आयु में अपोलो चिकित्सालय में आज सुबह 10.30 बजे निधन हो गया। उनका अंतिम संस्कार अभयारण्य के गांव लमनी में मंगलवार को किया जायेगा, जहां उन्होंने आदिवासियों की सेवा के लिए अपना स्थायी निवास बना लिया था। वे उनके बीच ‘दिल्ली वाले साहब’ के रूप में लोकप्रिय थे। उनके निधन पर मुख्यमंत्री ने शोक व्यक्त किया है।

प्रो. खेरा दिल्ली विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर थे। सन् 1983 में वे बिलासपुर आने पर अमरकंटक व अचानकमार अभयारण्य शोधार्थियों के साथ घूमने के लिए पहुंचे थे। यहां वे बैगा आदिवासियों के जीवन विशेषकर बच्चों के जीवन को देखकर व्यथित हुए। तभी उन्होंने यहां रहकर अपना शेष जीवन इनकी सेवा के लिए बिताने का संकल्प ले लिया। अगले साल सेवानिवृत्ति के पश्चात वे यहां आ गये। वे अचानकमार अभयारण्य के लमनी, छपरवा, सुरही आदि गांवों में पैदल घूम-घूमकर बच्चों को साफ-सफाई से रहने के लिए संदेश देते रहे। बच्चों को नहलाना, नाखून काटना, मच्छरों से बचने के लिए कपड़े पहनाना, पढ़ाई के लिए किताबें देना उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। आदिवासियों को पौष्टिक भोजन मिले, इसके लिए वे सरकारी योजनाओं का लाभ दिलाने कलेक्टोरेट का चक्कर लगाते थे। वे अपने साथ सदैव एक थैला रखते थे, जिसमें आम तौर पर जंगल में रहने वालों को होने वाली बीमारी मलेरिया, बुखार, दस्त आदि की दवाएं होती थीं साथ में बच्चों के लिए पौष्टिक दलिया वगैरह भी रखा करते थे। वे हर दिन 15 से 20 किलोमीटर पैदल यात्रा करते थे। वे लमनी में एक झोपड़ी में रहते थे। अपनी पेंशन की सारी रकम भी इन्हीं आदिवासियों के कल्याण पर वे खर्च कर देते थे। जब बहुत ठंड पड़ती थी तो वे एक-दो माह के लिए गुजरात के कच्छ जिले के धोरडो गांव चले जाते थे, वहां भी वे आदिवासियों के ही बीच रहते थे। उन्होंने विवाह नहीं किया था। उनके बाकी परिवार के बारे में भी लोगों को बहुत कम जानकारी है। उनके पेंशन की राशि से अभी भी कई बच्चे उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। उन्होंने लमनी में अपने खुद के प्रयासों से बच्चियों के लिए स्कूल खोला है, जिसके लिए उनके परिचित और मित्रों से भी मदद मिलती है।


13 अप्रैल 1928 को जन्मे प्रो. खेरा को पिछले साल राज्य सरकार की ओर से महात्मा गांधी की 150वीं जयंती के अवसर पर राज्य सरकार ने महात्मा गांधी स्मृति सम्मान दिया गया था। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल उनकी तबियत का  हाल जानने के लिए कुछ माह पहले अपोलो अस्पताल पहुंचे थे और उनके इलाज का खर्च वहन करने के साथ-साथ आदिवासियों के कल्याण के लिए उन्हें पांच लाख रुपये भी दिये थे।

बिलासपुर, मुंगेली जिले में प्रो. खेरा का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। उनके निधन से अचानकमार अभ्यारण्य के आदिवासी समुदाय में भी शोक छा गया है।

प्रो. खेरा का निधन वनवासियों के लिए बड़ी क्षति- धर्मजीत सिंह

लोरमी विधायक धर्मजीत सिंह ने प्रो. खेरा के निधन पर शोक व्यक्त करते हुए कहा कि दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर जैसे सुविधाजनक पद से सेवानिवृत्त होने के बावजूद अभावों के बीच जंगल में गरीब आदिवासियों के बीच रहकर अपना जीवन उन्होंने समर्पित कर दिया। आदिवासी बच्चों, महिलाओं के स्वास्थ्य और शिक्षा के लिए उन्होंने अपना पूरा जीवन लगा दिया। उनके निधन से हमने एक समर्पित समाजसेवी खो दिया है।

 

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