राजेश अग्रवाल। बिलासपुर ने बीते 20 सालों तक एक ताकतवर विधायक को देखा। अब आपके सामने एक ऐसा असहाय जनप्रतिनिधि खड़ा है, जिसे उनकी अपनी ही पार्टी के लोग पटखनी देने पर उतारू हैं। वह भी विधानसभा चुनाव निपटने के महीने भर के भीतर ही। गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण करने वालों मेें उनका नाम न होने से लग रहा है कि इस उठापटक की धमक केवल बिलासपुर तक ही सीमित नहीं, बल्कि  राजधानी तक भी है।

खेमेबाजी, लामबंदी हर दौर में कांग्रेस की एक स्थायी पहचान रही है। टिकट वितरण के दौरान तो यह चरम पर पहुंच जाती है और न मिलने पर कई बागी भी मैदान में उतर जाते हैं। इस बार भी कांग्रेस की टिकट शैलेष पांडेय को मिली तो कई दावेदार मायूस हो गये। कोई बगावत नहीं हुई, क्योंकि बदलाव की बयार को टिकट की आकांक्षा रखने वालों ने भी महसूस कर लिया था।

कांग्रेस में टिकट आसानी से कहां मिलती है? यह केडर बेस पार्टी ही नहीं है। जब किसी का नाम चलता है तो यह नहीं देखा जाता कि उसने कितने साल, महीने दिन और घंटे पार्टी के लिए खपा दिये या दरी उठाई, लाठी खाई, जेल गए। कई बार डेढ़ दो साल की दौड़-धूप काम आ जाती है, कई बार दो-चार महीने की हवाई सैर से भी काम बन जाता है। टिकट बंटने के आखिरी दौर में दिल्ली दरबार में जिसका समीकरण सही बैठ गया, वह टिकट हासिल कर लेता है। विधायक शैलेष पांडेय ने जब दावेदारी की, तो भाजपा ने उन्हें ‘पैराशूट’ उम्मीदवार बताया। बिलासपुर में पूर्व विधायक अरूण तिवारी, अशोक अग्रवाल, विजय पांडेय, राजेश पांडेय की दावेदारी भी असहज नहीं थी, पर इस दौड़ में अटल श्रीवास्तव आगे चल रहे थे। शैलेष पांडेय कई दशक पुरानी पीढ़ी के संघर्ष में साथ नहीं थे। न उन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य के आंदोलन में भाग लिया, न रेलवे जोन बनाने में न एसईसीएल और गुरु घासीदास यूनिवर्सिटी बनाने में। वे उस समय राजनीति में भी नहीं थे। बाकी दावेदारों ने प्रदेश कांग्रेस के निर्देश पर हर बार आंदोलन किया, गिरफ्तारियां दी। हां, इनमें कुछ दावेदारों ने कांग्रेस के खिलाफ बगावत कर भाजपा की जीत को आसान भी अतीत में किया।

इस चुनाव चक्र के दौरान कांग्रेस भवन लाठी चार्ज की घटना में घायल होने के बाद अटल श्रीवास्तव का नाम सबसे ऊपर आ गया। लोग उन्हें टिकट का पुख्ता दावेदार मानकर चलने लगे। अक्सर कांग्रेस में अंतिम क्षणों में उलटफेर हो जाते हैं। नाम किसी का चलता है, टिकट किसी और को मिल जाती है। बिलासपुर के मामले में भी ऐसा हुआ। जब कोटा से कांग्रेस उम्मीदवार के रूप में विभोर सिंह का नाम आया तभी लगने लगा था कि रेस में अटल पिछड़ गये, और इसके कुछ घंटों के बाद तस्वीर साफ भी हो गई। इसके बाद कांग्रेस भवन में दावेदारों और उनके समर्थकों का गुस्सा भी सार्वजनिक हो गया। कांग्रेस भवन में बैठक हुई, यहां भी पांडेय को दो-चार अप्रिय बातें सुननी पड़ी, पर अंत में यह तय हुआ कि हाईकमान का चयन है तो उन्हें पार्टी का साथ मिलेगा।

पांडेय की अपनी टीम, अनेक समर्पित पार्टी कार्यकर्ता, कुछ जातिगत समीकरण और बहुत ज्यादा- बदलाव का माहौल। सब मिला-जुलाकर कांग्रेस 20 साल बाद बिलासपुर की सीट को फिर हासिल करने में सफल हो गई।

चुनाव खत्म हो जाने के बाद सारी गांठ खत्म हो जानी थी, मनमुटाव दूर हो जाना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कुछ उदाहरण-  पांडेय की स्वागत रैली में ही कई स्थानीय बड़े नेता शामिल नहीं हुए। मुख्यमंत्री के रूप में भूपेश बघेल के पहली बार बिलासपुर पहुंचने पर एक तस्वीर वायरल हुई जिसमें शहर अध्यक्ष नरेन्द्र बोलर पांडेय का हाथ पकड़कर उन्हें स्वागत करने से रोकते हुए दिख रहे हैं। कांग्रेस भवन में राजस्व मंत्री जयसिंह अग्रवाल की पत्रकार वार्ता के दौरान पांडेय डॉयस पर बैठे दूसरे पदाधिकारियों के बर्ताव से इतने असहज हुए कि चुपचाप कांग्रेस भवन से बाहर निकलकर आ गये। इसी दिन डीपीएस स्कूल में मुख्यमंत्री बघेल के लिए दोपहर भोज रखा गया था। हालांकि देर हो जाने के कारण बघेल यहां भोजन नहीं ले पाये, पर इस दौरान वे बाकी पदाधिकारियों के साथ भोजन करते नहीं, बल्कि अलग-थलग बाहर टहलते देखे गए।

सकारात्मक भाव रखते हुए, उदार मन से सोचें तो इन सब घटनाओं की कांग्रेसजनों के बीच शक्तिप्रदर्शन की स्वाभाविक चेष्टा कहकर अनदेखी की जा सकती है।

मगर, ध्यान खींच रही है गणतंत्र दिवस ध्वजारोहण के लिए राज्य सरकार की ओर से जारी की गई सूची। इसमें एक बात बेहतर है कि पहली बार एक महिला जनप्रतिनिधि रश्मि सिंह ठाकुर मुख्य समारोह में सलामी यहां लेंगीं। पर, इस सूची से शैलेष पांडेय का नाम गायब है। कई जिलों में, जहां कांग्रेस के मंत्री या विधायक नहीं हैं वहां तो जिला पंचायत अध्यक्षों को भी ध्वजारोहण का दायित्व दिया गया है, तब स्थानीय विधायक को उन्हीं के शहर में इस सम्मान से वंचित किया जाना अवाक् करता है।

क्या यह मानकर चला जाये कि कांग्रेस का वह पुराना दौर लौट रहा है, जब संगठन की ही भूमिका सबसे ऊपर हुआ करती थी। विधायक वह करेंगे जो संगठन का निर्देश होगा? या फिर इसका मतलब यह है कि संगठन के पदाधिकारियों और निर्वाचित विधायक के बीच एक बड़ी खाई बन रही है। यदि पहली बात सही है तो पदाधिकारियों की यह शक्ति सिर्फ बिलासपुर तक सीमित क्यों है? सच के करीब तो दूसरी बात ही लगती है।

प्रसंगवश,  मध्यप्रदेश के जमाने से ही बिलासपुर का एक खास दर्जा रहा है। यहां के विधायक को मंत्रिपरिषद् में सदैव जगह मिलती रही, सरकार चाहे भाजपा ने बनाई हो या कांग्रेस ने। यह संयोग ही रहा कि तीन चौथाई बहुमत आने के बाद कांग्रेस को मंत्रिमंडल की सीमित जगह में हिस्सेदारी के लिए मापदंड कड़े करने पड़े। इसी के तहत पहली बार निर्वाचित होने के कारण बिलासपुर जिले से किसी को प्रतिनिधित्व नहीं मिला। बिलासपुर ऐसा जिला और लोकसभा क्षेत्र है जहां तीसरी ताकत यानि अजीत जोगी की पार्टी का चुनाव परिणाम पर खासा असर रहा। बाकी विधानसभा क्षेत्रों में जोगी की पार्टी से भले ही भाजपा को क्षति पहुंची हो, पर यहां तो नुकसान कांग्रेस को ही हुआ।अब कुछ हफ्तों के बाद लोकसभा चुनाव की भी घोषणा हो जायेगी। ऐसे में कांग्रेस में परिलक्षित हो रही वर्चस्व की लड़ाई ऐसी ही चली, तो विधानसभा की जीत तो वह दोहराने से रही। उसके कुछ महीनों के बाद नगर निगम के चुनाव भी होंगे। कांग्रेस को यहां भी भाजपा से ही मुकाबला करना है। पांडेय ने किस तरह से टिकट हासिल की और किन समीकरणों से जीत हासिल की-यह प्रश्न अब गौण हो चुका है। यह पार्टी हाईकमान के सोचना था कि यह नाम तय करते समय, कांग्रेस के दूसरे दावेदारों से सहमति ली जानी थी या नहीं। पर, अब शैलेष पांडेय शहर के निर्वाचित विधायक हैं। उनका जो संवैधानिक दर्जा है वह कोई छीन नहीं सकता। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस तथ्य को ध्यान में रखा, जब उन्होंने व्यापार मेले के कार्यक्रम में पांडेय को माइक देने कहा।

चलिये, इस बात की परवाह भी न की जाये कि पांडेय को वोट देने वालों को इस स्थिति से कोई पीड़ा हो रही है या नहीं, यह भी चिंता की बात नहीं कि शहर का विधायक कौन है और सुपरमैन कौन। लेकिन टकराव का यह माहौल नौकरशाहों के लिए जरूर मुफीद होगा। कोई एक खेमा पकड़कर बैठ जाएगा, कोई दूसरे खेमे की चाटुकारिता में लग जायेगा। शहर की सूरत में बदलाव की उम्मीद से जो परिवर्तन यहां के मतदाताओं ने लाया है उस पर इस माहौल में पानी फिर सकता है। कुल मिलाकर नुकसान शहर का, शहरवासियों का। राजनेता चाहे कांग्रेस के हों या भाजपा के, उन्हें सत्ता का गुमान जब चढ़ता है तो वे किसी की नसीहत नहीं सुना करते हैं, इसलिए यहां जो लिखा गया है, उनके काम का नहीं बस विचारवान पाठकों के लिए है।

 

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