मानवता के आधार पर ही मिल सकती है अतिरिक्त राहत, पुनर्वास नहीं बना सकता कानूनी अधिकार
नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने ज़मीन अधिग्रहण से जुड़े एक महत्वपूर्ण मामले में स्पष्ट किया है कि हर केस में विस्थापित ज़मीन मालिकों को पुनर्वास देना कानूनी रूप से जरूरी नहीं है। कोर्ट ने कहा कि अगर मुआवज़ा तय मानकों के तहत दिया गया है, तो उसे ही पर्याप्त माना जाएगा। केवल कुछ बेहद असाधारण मामलों में ही पुनर्वास की जरूरत हो सकती है।
“मुआवज़ा ही पर्याप्त, हर बार पुनर्वास की ज़रूरत नहीं”
जस्टिस जेबी पारडीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की खंडपीठ ने 14 जुलाई को सुनाए फैसले में कहा कि पुनर्वास का अधिकार हर ज़मीन मालिक को नहीं दिया जा सकता। जब तक कोई मामला अत्यंत दुर्लभ और गंभीर न हो, जैसे कि पूरी आजीविका पर ही संकट हो, तब तक केवल मुआवज़ा ही न्यायसंगत समाधान होगा।
राज्य सरकारों को फटकार
कोर्ट ने राज्यों को चेतावनी दी कि राजनीति या लोकलुभावन फैसलों के चलते बेमतलब की पुनर्वास योजनाएं लागू करने से बचें। ऐसे कदम अक्सर विवाद और मुकदमेबाज़ी को जन्म देते हैं।
हरियाणा में जमीन मालिकों ने की थी प्लॉट की मांग
हरियाणा अर्बन डिवेलपमेंट अथॉरिटी (HUDA) से जुड़े एक केस में ज़मीन मालिकों ने पुनर्वास नीति के तहत प्लॉट देने की मांग की थी। वे 1992 की नीति के अनुसार भुगतान करने को तैयार थे, लेकिन सरकार ने यह कहकर इनकार कर दिया कि मामला बहुत देर से उठाया गया, ज़मीन अधिग्रहण के 14 से 20 साल बाद।
कोर्ट ने माना कि 1992 की नीति के तहत ज़मीन मालिकों को कानूनी अधिकार नहीं बनता, लेकिन वे 2016 की नई नीति के अंतर्गत आवेदन कर सकते हैं। कोर्ट ने उन्हें 4 हफ्तों में आवेदन देने और राज्य को 8 हफ्तों में निर्णय लेने का निर्देश दिया।
कार्टेल और दलालों से सतर्क रहने की चेतावनी
कोर्ट ने राज्य और HUDA को आगाह किया कि पुनर्वास की आड़ में ज़मीन माफिया या बेईमान तत्व कोई लाभ न उठा पाएं। ऐसे तत्व अक्सर समूह बनाकर योजनाओं का दुरुपयोग करते हैं।
प्लॉट की बिक्री पर 5 साल तक रोक
कोर्ट ने यह भी आदेश दिया कि पुनर्वास योजनाओं के तहत दिए गए प्लॉट्स को कम से कम 5 साल तक बेचा या स्थानांतरित नहीं किया जा सकेगा, वह भी सक्षम प्राधिकारी की अनुमति से ही। यह सुनिश्चित करने के लिए है कि इन योजनाओं का लाभ केवल वास्तविक विस्थापितों को मिले, न कि व्यापारिक मंशा रखने वालों को।













