बिलासपुर। छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट ने बच्चों के मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए राज्य सरकार को एक ठोस नीति बनाने का निर्देश दिया है। यह फैसला मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा और जस्टिस रविंद्र कुमार अग्रवाल की खंडपीठ ने जनहित याचिका (WPPIL नंबर 61/2017) पर सुनवाई के बाद दिया। कोर्ट ने राज्य सरकार को छह महीने के भीतर आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) के बच्चों के लिए शिक्षा नीति तैयार करने का आदेश दिया है।

याचिका की मुख्य मांगें

याचिकाकर्ता सी.वी. भगवंत राव ने अपनी याचिका में राज्य सरकार की 23 अगस्त 2011 की अधिसूचना को चुनौती दी थी। इस अधिसूचना में आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) की परिभाषा को संशोधित कर बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) सूची से जोड़ दिया गया था। याचिकाकर्ता का तर्क था कि यह संशोधन शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE Act, 2009) के मूल भावना और उद्देश्य के खिलाफ है। उन्होंने मांग की थी कि:

  • RTE एक्ट के तहत निजी स्कूलों में 25% सीटों पर EWS बच्चों को बिना किसी बाधा के प्रवेश दिया जाए।
  • जिन परिवारों की वार्षिक आय 3 लाख रुपये से कम है, उनके बच्चों को EWS श्रेणी में शामिल किया जाए।
  • बीपीएल सूची को आधार बनाने की शर्त को हटाया जाए, क्योंकि सभी EWS परिवार बीपीएल सूची में शामिल नहीं होते।
  • निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों में बच्चों को दाखिला देने में राज्य सरकार की ओर से कोई रुकावट न डाली जाए।

कोर्ट का अवलोकन

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि RTE एक्ट संविधान के अनुच्छेद 21A के तहत 6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का मौलिक अधिकार देता है। इस अधिकार को लागू करने के लिए एक्ट की धारा 12(1)(c) के तहत निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को अपनी पहली कक्षा में कम से कम 25% सीटें EWS और वंचित समूहों के बच्चों के लिए आरक्षित करनी होती हैं। कोर्ट ने पाया कि राज्य सरकार की 2011 की अधिसूचना ने EWS की परिभाषा को बीपीएल सूची तक सीमित कर दिया, जो RTE एक्ट के व्यापक उद्देश्य के विपरीत है।

कोर्ट ने यह भी नोट किया कि केंद्र सरकार ने EWS की परिभाषा में वार्षिक आय की सीमा को 3 लाख रुपये तक निर्धारित किया है, जबकि कुछ राज्यों जैसे कर्नाटक (3.5 लाख), राजस्थान (2.5 लाख) और तमिलनाडु (2 लाख) ने इसे और लचीला बनाया है। छत्तीसगढ़ में बीपीएल सूची को आधार बनाने से कई पात्र बच्चे शिक्षा के अधिकार से वंचित हो रहे हैं, क्योंकि बीपीएल सूची 2007-08 से अपडेट नहीं की गई है।

याचिकाकर्ता के तर्क

याचिकाकर्ता के वकील देवर्षि ठाकुर ने तर्क दिया कि राज्य सरकार को RTE एक्ट की मूल धाराओं को संशोधित करने का अधिकार नहीं है। उन्होंने कहा कि निजी स्कूल बीपीएल सूची के आधार पर दाखिले से इनकार कर रहे हैं, जिससे बच्चों का मौलिक अधिकार प्रभावित हो रहा है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि शिक्षा को अब सामुदायिक सेवा के बजाय व्यवसाय बना दिया गया है, जो संविधान के अनुच्छेद 21A के खिलाफ है।

राज्य सरकार का पक्ष

राज्य सरकार की ओर से अतिरिक्त महाधिवक्ता यशवंत सिंह ठाकुर ने दलील दी कि 2011 की अधिसूचना का उद्देश्य पात्र बच्चों को शामिल करना था। उन्होंने कहा कि बीपीएल सूची तैयार करने की प्रक्रिया में सामाजिक-आर्थिक संकेतकों को आधार बनाया गया है, जो EWS की पहचान के लिए पर्याप्त है। हालांकि, कोर्ट ने इस दलील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि बीपीएल और EWS की परिभाषा एक समान नहीं हो सकती।

कोर्ट का निर्णय

कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि राज्य सरकार के पास इस मुद्दे पर स्पष्ट नीति का अभाव है। मुख्य न्यायाधीश रमेश सिन्हा ने टिप्पणी की कि शिक्षा बच्चों के भविष्य और देश के विकास के लिए महत्वपूर्ण है, और इसे व्यवसाय के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। कोर्ट ने राज्य सरकार को निम्नलिखित निर्देश दिए:

  • छह महीने के भीतर EWS बच्चों के लिए RTE एक्ट के अनुरूप नीति बनाएं।
  • नीति में यह सुनिश्चित करें कि बच्चों को मुफ्त शिक्षा के अधिकार से वंचित न किया जाए।
  • बीपीएल सूची को EWS की परिभाषा से अलग रखा जाए, ताकि व्यापक पात्रता सुनिश्चित हो सके।

प्रभाव और महत्व

इस फैसले को शिक्षा के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक कदम माना जा रहा है। विशेषज्ञों का मानना है कि इससे छत्तीसगढ़ में आर्थिक रूप से कमजोर परिवारों के बच्चों को बेहतर अवसर मिलेंगे। कोर्ट ने यह भी जोर दिया कि शिक्षा सामाजिक न्याय और समानता का आधार है, जिसे हर हाल में संरक्षित करना राज्य का कर्तव्य है।

इसके साथ ही, जनहित याचिका का निपटारा कर दिया गया।

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